सृजनहार
कुछ तो रचें हैं
रचने वाले ने
वर्ना सुखी डाल नहीं हिलती ।
हर पतझड़ के बाद
हर शाख पर पुष्प नहीं खिलती।
कुछ तो रचें हैं
रचने वाले ने
वर्ना हर पंख पतवार नहीं होता
अथाह व्योम समुद्र में
युहीं ग़ोता लगाना मुमकिन नहीं होता।
कुछ तो रचें हैं
रचने वाले ने
मिटटी की देह धड़कता कैसे
रक्त -घृत से प्रज्वोलित
ये ज्योति जलती कैसे ...
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रचने वाले ने
वर्ना सुखी डाल नहीं हिलती ।
हर पतझड़ के बाद
हर शाख पर पुष्प नहीं खिलती।
कुछ तो रचें हैं
रचने वाले ने
वर्ना हर पंख पतवार नहीं होता
अथाह व्योम समुद्र में
युहीं ग़ोता लगाना मुमकिन नहीं होता।
कुछ तो रचें हैं
रचने वाले ने
मिटटी की देह धड़कता कैसे
रक्त -घृत से प्रज्वोलित
ये ज्योति जलती कैसे ...
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loved this one saheb!!!!!
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