coffee

पीले पत्ते झड़ रहे
नीम के तिनके गिर रहे हैं ।
सुने सुने ऋतु में हवा भी कुछ कह रही ।
कॉफी को ओठों से लगाये
मुझे किसी पुराने दोस्त की याद आ गयी ।
उनके हाथों के बने कॉफी काफी कड़े हुआ करते थे ।
पहली बार, पहली घूंट लेने के बाद मन में कुछ तो गाली बका था।
पर इतने प्यार से बनाया था की पीना ही पड़ा था ।
चाय पीने के बाद ये चीज पीना मेरे लिए एक नया सा अनुभव था
और दो सालों तक एक नशा सा बन गया था ।
मैं उन्हें कॉफी के लिए याद करता था .
वह बोध-भुछु था
बड़ा ही शांत स्वाभाव का था
गुस्सा करता था तो मुझे दादाजी का याद आता था
मैं उनसे पूछता था मैं कि पिछले जन्म में क्या था ?
कहता "तुम बकरे थे ।"
मैं कहता था ,नहीं मैं इन्सान ही था।
और वह कहता - नहीं।
वो खुद को कहता की वह इन्सान ही था कई जन्मों से।
और आज तक वह इन्सान होने की अभ्यास कर रहा है।
मैं बहुत सालों के बाद समझा की सच में
मैं अभी भी जानवर ही हूँ . इन्सान बनना तो बहुत दूर की बात है।
मैं भी नीम के पेड़ की तरह बार बार अपने पत्ते छोड़ नए पत्ते ग्रहण करता हूं ।
पर कभी भी पूर्ण हरा नहीं हो पता और ये क्रम चलता रहता है।
कॉफी मुझे अभी भी उसकी याद दिलाती है।
उसके साथ रह कर मैं बुद्ध के रखे दांत वाले कलश देखे ।
मैंने नमस्कार किये।
सोचा था कुछ उर्जा आयेगी पर,
कुछ अनुभव नहीं हुआ।
खुद से न जलो तो शायद आग भी क्या करे?
खुद को सुखा लेना बहुत जरुरी है,
भीगे दिए में आग नहीं लगती ।


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