हम अभी छोटे थे पुरोहित ने ईश्वर की दस आज्ञाएं पकड़ा दी। साथ में दंड भी निर्धारित कर दी। जुगनू सृष्टि देखी ही नहीं थी कि चिराग में खाक हो गया। जाने कितनी गंगायें बह निकली पर इन्सान पाप पे पाप करते गया। किसी ने कभी हमें स्वतंत्र होके सोचने नहीं दिया। कितनी धर्मग्रन्थ लिखी गई , कितने गीत रची गई , कितने मतभेद हो गए। शाखाओं पे शाखाएं निकल पड़ी और पृथ्वी ढँक गई। पर मानव अपना ही संहिता बनता है, गीतवितान लिखता है , और मन अपना ही संचयिका रचती है। वस्तु और उस सम्पूर्ण ज्ञान का मोल आज आखिर क्यों प्रश्न बने खड़ा है ? दश दिशाएं है पर आज मैं मौन पड़ा हूँ।