जब रेखाएं कहीं धूमिल हो गई

जब रेखाएं कहीं धूमिल  हो गई
बिंदु कहीं मलिन
तब तुम मुझे जाने क्यों याद आए ?

हम अम्रकुञ्ज के नविन पुष्प सा
पलाश के रक्तरंजित शाख सा
हृदय में तुम्हें क्यों पाए ?

टूट टूट कर सरित तट सा
मिलने जब हम सागर को चले
तुम दूर नहीं थे, पास ही खड़े क्यों पाये ?

भिक्षा के जब पात्र बढ़ाये
आशाओं के इस पात्र में
स्वर्ण मुद्रा सी तुम्हें ही दीप्तमान पाए !

आज एक सूर्य से आलोकित है
दिक्दिगंत मेरे
तो फिर नव सूर्य हम क्यों बुलाए ?

हृदय के इस सागर मंथन में
जब प्रेम के दो चक्षु खोले
हृदय घट में तुम ही समाए !

By - साहेब राम टुडू  

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