स्त्री

आज भी वो
हंसिये से काटती है संसार
ताकि अपने गौशाले और परिवार को
 हरा कर सके चारा देकर।

पर अपने ही अंगूठे कट जाने से
लाल हो जाती हैं घांस के तिनके
और अपने जख्मों को मेहदी से ढँककर
वह बेलती है
सकती है रोटी।

आग की तपिश
मिर्च की झाल को
अँगुलियों के दरार से चख कर
मन ही मन खुश होती है।
बच्चों के रशीले ओठों में
स्वाद के मुखरित बिम्बों को देख कर।

पर पति समझ नहीं पाते वो दर्द
और मसल देते हैं मेंहदी की कल्पना जहाँ
पर हर रोज की तरह
आज सुबह भी अपनी ताजगी लिए थी
मेंहदी के रंग हथेलियों में।

और इंतिजार करती
जब तक मेंहदी मिटेगी
तब तक ही शायद
समय लगेगा घाव भरने में।
यही सोच नीत जलती
और बुझती रहती
अंगीठी की तरह।

वह तभी संवारी जाती जब उसमें
भार सँभालने की क्षमता नहीं रह जाती।
हल्की सी दरारों को अनदेखा कर दिया  जाता
उनके आह को अदा का नाम दिया जाता
पर नीत देखे हैं रात्रि में
खिलते रजनीगंधा की तरह
अपनी सुरभित सौरभ से
महकाती है आंगन।

और एक दिन,
शाम ढलने पर गमले की तरह
त्रिस्क़ृत कोने में फ़ेंक दी जाती है
और उनकी उपलब्धियों को भुला दिया जाता है
और उन सामान्य उपलब्धियों को
अपना महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ बतलाकर थक जाती हैं
कहीं सत्यापित नहीं कर पाती हैं
दुनिया की अदालत में।

और वह मिट जाती है
आकाश की बूँद की तरह
पर इंसान है कि उनका जी नहीं भरता
उसे नल की तरह सदैव खोलता रहता है
इसी ख्वाहिश से कि
एक बूँद निचोड़ ही देगी स्त्री।

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