लोक कला


तेरे कुची से रंगी आकृतियाँ
बारिश की बूँदों में बह गई।
माँ ! तेरी बनाई वो आकृतियां
किसी संग्रहालय में संग्रहित
आकृतियाँ / कलाकृतियों से कम नहीं।

तुम तो माता हो ! जननी हो ! कला की।
तुम तो उषा ! हो उस महान ऊर्जा की
जिससे नए पल्ल्व उगते हैं।
नवशिशु कलाकार  जन्मते हैं।
तो फिर क्यों इतने दयनीय स्थिति में ?
पेड़ के झुरमुट तले जीवन तुम क्यों जीती ?

तुम दधीचि की वज्र हो !
जो संपूर्ण सृष्टि को चेतावनी दे सकती हो।
आज तुम भीख क्यों मांगती ?
तुम तो स्वं दात्रि हो !

क्या नहीं है तुम्हारे पास
जो प्रसव करे वो मातृभूमि हो तुम !
और जो पल्लवित करे
वो पयोनिधि हो तुम !
तुम सिंधु हो ! बिंदु बनी क्यों बैठी ?

मैं दुखित हूँ !
जब तुम्हें मैं देखता हूँ तिरस्कृत ! उपेछित ! इस व्योम तले।

आ माँ ! मेरे गले लग जा।
मैं आप का पुत्र !
आप को आश्रय देता हूँ।
तेरे रंग ! तेरे चिंतन ! मुझमे नवजीवन पाए।
मैं ये प्रार्थना करता हूँ।

तुम ज्योति हो सम्पूर्ण मानव जगत का
मैं आपको नमन करता हूँ !
जोहार ! जोहार ! जोहार ! नायो !


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