बाहा पर्व : संताल इतिहास और कहानी:

बाहा पर्व : संताल इतिहास और कहानी:

बाहा का अर्थ है "फूल"।  बसंत /फाल्गुन ऋतु को बाहा बोंगा के नाम से भी जानते हैं।
सम्पूर्ण सृष्टि जब बसंत /फाल्गुन के आगमन से बृक्षों की शाखाओं में नव पल्लव और पुष्प सुशोभित हो उठते हैं और पहाड़ों  में शाल, शिमूल, महुआ और पलास के फूलों से दिक् दिगंतर भर जाते हैं।  संतालों के जीवन में नए उमंग और उल्लास सा संचार होने लगता है। भारतीय संताल ऋतु चक्र में माघ माह को प्रथम दर्जा प्राप्त है, इसीलिए माघ प्रथम को संताली नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है।
माघ के बाद वसंत ऋतु प्रवेश करने लगती है।  फाल्गुन पूर्णिमा को बाहा कुनामी के नाम से मनाया जाता है। भारतीय भूमंडलीय परिप्रेक्ष्य में संताल जातियों के संस्कृति,जीवन-मूल्यों एवं वास-स्थलों  में अन्य जातियों के सांस्कृतिक समन्वय और सहस्तक्षेप के वजह से संताल अपने देवताओं के मर्यादा और रीति - रिवाजों की विशुद्धता को लक्ष्य रखते हुवे बाहा पर्व या तो पहले मानते हैं या तो उस दिन के बाद।

बाहा पाप से मुक्ति और धर्म अनुशीलन का पर्व है। अशत से  सत्य की और अंधकार से ज्योति की और तथा मृत्यु से अमरत्व की और जाने का पर्व। बुराई के पथ को त्याग कर अच्छाई के मार्ग पर चलने का दर्शन है।

पूजा:

बाहा बोंगा/पर्व में पहला पूजा अर्पण जाहेर आयो (शाल वृक्ष की देवी ) इसके बाद मारांग बुरु  और मोढ़े को आर तुरूई को के नाम से दिया जाता है । देवी को बलि में मुर्गी ( हेराक कालोट) और बकरी ( गुलि पाठी ) समर्पित किया जाता है। मुख्य पूजा के साथ-साथ अन्य 4 -5 पूजा अन्य बोंगा-बुरु(देवताओं ) के नाम से दिया जाता है।   

इतिहास और कहानी:

ईश्वर ने सारी सृष्टि बहुत ही सूंदर और आनंद स्वरुप में गढ़ा।  परंतु कालांतर में जब सम्पूर्ण धरती पाप के ग्रास में आ गयी तब संताल जाती में अधर्म , अनैतिकता और मानवता के मूल्यों का हनन हो चूका था। ऐसे समय में सृष्टिकर्ता ठाकुर जीव बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने देव गैन पे परामर्श से इस सृष्टि को भष्म करने का निश्चय कर लिया  में चल रहे व्यक्तियों  को सुरक्षित जगह में ले जाने की ठानी। उन्होंने मरांग बुरु के संरक्षण और मार्ग दर्शन में युवक और युवतियों को हारता बुरु/पहाड़ की कंदराओं में ले गए जो लोग धर्म के मार्ग पर चल रहे थे और जिन्होंने अधर्म का अनुशरण किया , पतन का मार्ग लिया उन्हें दंड देने के लिए 12 दिन और 12 रात आकाश से गंधक और अग्नि की वर्षा करवायी और इस तरह से सम्पूर्ण सृष्टि जल कर भष्म हो गयी.

मारांग बुरु के नेतृत्व में जितने लोग हारता बुरु (अरारात ) पहाड़ के कंदराओं में थे उन्होंने एक दिन पक्षी की चहकने की आवाज सुनाई दिए।  तब जाकर उन्हें लगा अब वे सुरक्षित बाहर आ सकते हैं।  ईश्वर ने फिर से नई वृष्टि करवाई और इस नयी वृष्टि के बौछार को पाकर साडी सृष्टि फिर से खिल उठी और इंसानों ने एक दुसरे पर पानी का छिड़काव किया।  संतालों ने इस वृष्टि को पवित्र माना और इसी परंपरा को रखते हेए सिर्फ शुद्ध पानी से ही एक दूसरे पर पानी के ढालने का रिवाज है। रंग वर्जित है और सिर्फ हास्योचित और अंतरंग रिश्ते रखने वालों के साथ ही बाहा पानी का छिड़काव कर सकते हैं। ये रिश्ते हैं : नाती/दादी /दादा -पौता , जीजा-शाली , फूफ़ा  इत्यादि।





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