धुंद
प्रातः माटी की खुशबू
धान कि झुकी हुई बालियां
शीत - शिशिर में नहाये ये बयार
कुछ तो रस घोल गए मौन ये वादियां !
ट्रैन के खिड़की से मैंने दूरतक देखे थे
कोहरे की एक चादर लपेटी
कोई खड़ी थी पंकज कुसुम की सुगंध लिए
कुछ जानी कुछ अनजानी सी।
रंगीन ब्याध - पतंग सा मन भ्रमर
मंडरा रहा था शिशिर शिक्त अधखुले कुमुदिनी पर
कुछ तो भंवर पड़े थे हिय के पोखर में
आँखे कब सो गई पता ही नहीं चला प्रियतमा !
मैं स्वप्न में था या निद्रा में
ध्यान ही नहीं
जब तेरी स्टेशन आई ,
कुछ छण के लिए मेरी आँखे तो खुली
पर जब तक तुम्हें पहचान पाता,
तुम धुंद में कहीं तुम खो चुकी थी।
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