कोयला कि राजधानी
ये कोयला की राजधानी
हर गली, हर मोहल्ला यहाँ काली है।
मजदूरी करने वाले भी काले
कोयला माफिया भी यहाँ काले।
पानी भी अपनी रंग भूल गया
मिटटी ने काली कम्बल ओढ़ ली
जुल्म इतना बढ़ गया कि
पत्त्यों ने हरयाली छोड़ दी।
कदम मेरे कुछ इस तरह बढे थे
अपनों के कुछ तस्वीरें खीचने के लिए
की नकाब वालों ने
हकीकत पर पर्दा डाल दी।
भटकता रहा यूँ ही
अपनों कि खोज में
अंतिम दीदार हो सके
उम्मीद की एक आस में।
कोयला समझ जो मैंने उठाया
वो मजदुर का सर था
हिरा समझ जो चीज उठाया
वो उसका पसीना था
उन्होंने ने अनपी पूरी जिंदगी
कुर्बान की सिर्फ चंद मजदूरी के लिए
और लुटने वालों ने
पूरा का पूरा खान लुट लिया।
अनंत गर्त सी पड़ गयी
एक शमसान सा फैल गयी
और दौलत बनाने वालों ने
एक और खान बना लिया
ये धुल पे धुल खाते रहे
और वो रुपये पे रुपये खाते रहे
जो धुल तुम देखते खदानों में
वो उसकी अंतिम राख है।
वो उठती धुंवा की लपटे
उसकी अंतिम साँस
वो जलती हुई आग
उसकी भूक है
अगर उनलोगों इसकी
भूक शांत नहीं की
तो उसकी खून पीकर
अपनी भूख शांत करेगी...
sir I like your poems ....they all revoles around "encroachment" done by man to "Mother Nature".
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