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Showing posts from March, 2012

पीले पीले से दिन

कुछ पीले पीले से दिन पेड़ों की शाखों से खेलती धुप वो ख़ामोशी से दिन जहाँ हवा भी गंभीर पानी भी निस्तेज सिर्फ नीली चिड़िया की आवाज लंगूरों का आप आप की आवाज एक डाल से दुसरे डाल में जाना गहरी दुपहरी में जब एकांत मन अपने से बोला तो मैं रेत के समुन्दर में डूब गया और दूसरी सुबह कुछ इस अंदाज में आई की वो पीले पीले से दिन कुछ फूल से खिल गए...

कोयला कि राजधानी

ये कोयला की राजधानी  हर गली, हर मोहल्ला यहाँ काली है। मजदूरी करने वाले भी काले कोयला माफिया भी यहाँ काले। पानी भी अपनी रंग भूल गया मिटटी ने काली कम्बल ओढ़ ली जुल्म इतना बढ़ गया कि पत्त्यों ने हरयाली छोड़ दी। कदम मेरे कुछ इस तरह बढे थे अपनों के कुछ तस्वीरें खीचने के लिए की नकाब वालों ने हकीकत पर पर्दा डाल दी। भटकता रहा यूँ ही अपनों कि खोज में अंतिम दीदार हो सके उम्मीद की एक आस में। कोयला समझ जो मैंने उठाया वो मजदुर का सर था हिरा समझ जो चीज उठाया वो उसका पसीना था उन्होंने ने अनपी पूरी जिंदगी कुर्बान की सिर्फ चंद मजदूरी के लिए और लुटने वालों ने पूरा का पूरा खान लुट लिया। अनंत गर्त सी पड़ गयी एक शमसान सा फैल गयी और दौलत बनाने वालों ने एक और खान बना लिया ये धुल पे धुल खाते रहे और वो रुपये पे रुपये खाते रहे जो धुल तुम देखते खदानों में वो उसकी अंतिम राख है। वो उठती धुंवा की लपटे उसकी अंतिम साँस वो जलती हुई आग उसकी भूक है अगर उनलोगों इसकी भूक शांत नहीं की तो उसकी खून पीकर अपनी भूख शांत करेगी...

कुछ कहे थे तुमने

कुछ कहे थे तुमने वो आज मैंने सुना प्यार के दो बोल जो आज महंगे हो गए। सितारों को चुनने हाथ जो मेरे बढ़े सितारों ने खसक ली बोली - कुछ कीमत अदा कीजिये...