शब्द रस
आकाश एक दम नीला था पत्ते बिलकुल पीले सुखी काली सी टहनियां और भूरे लालरंग की युक्लिप्तुस की डाल उर्धव्गति में जाती हुई और दाहिने कान में कौवे की काव - काव दूर उड़ता गेस्ट हाउस की और कबूतर की आवाज बाएं कान के पास कबूतरी की आवाज मेरे एकांत मन में एक छवि उकेर रही थी । और मैं एक महाकवि सा कुछ पुराने शब्द जोड़ रहा था । ये पल सिर्फ - हवा में डोलता एक पंख बता सकता है पंखुड़ियों में बैठा भौंरा बता सकता है घांसों पर बैठे ओश ही बता सकते हैं मैं तो बस गौण हूँ शब्द अपने में कुछ रस घोल रहे थे... - साहेब राम टुडू