Posts

Showing posts from March, 2014

स्त्री

आज भी वो हंसिये से काटती है संसार ताकि अपने गौशाले और परिवार को  हरा कर सके चारा देकर। पर अपने ही अंगूठे कट जाने से लाल हो जाती हैं घांस के तिनके और अपने जख्मों को मेहदी से ढँककर वह बेलती है सकती है रोटी। आग की तपिश मिर्च की झाल को अँगुलियों के दरार से चख कर मन ही मन खुश होती है। बच्चों के रशीले ओठों में स्वाद के मुखरित बिम्बों को देख कर। पर पति समझ नहीं पाते वो दर्द और मसल देते हैं मेंहदी की कल्पना जहाँ पर हर रोज की तरह आज सुबह भी अपनी ताजगी लिए थी मेंहदी के रंग हथेलियों में। और इंतिजार करती जब तक मेंहदी मिटेगी तब तक ही शायद समय लगेगा घाव भरने में। यही सोच नीत जलती और बुझती रहती अंगीठी की तरह। वह तभी संवारी जाती जब उसमें भार सँभालने की क्षमता नहीं रह जाती। हल्की सी दरारों को अनदेखा कर दिया  जाता उनके आह को अदा का नाम दिया जाता पर नीत देखे हैं रात्रि में खिलते रजनीगंधा की तरह अपनी सुरभित सौरभ से महकाती है आंगन। और एक दिन, शाम ढलने पर गमले की तरह त्रिस्क़ृत कोने में फ़ेंक दी जाती है और उनकी उपलब्धियों को भुला दिया जाता है और उन सामान्य उपलब्

आभार

"हर नज्म अपने लहू से  लिखना सीधी स्पष्ट बेखौफ जैसे वो तुम्हारी आखिरी नज्म हो। " ________ ब्लागा  दिमित्रोवा

सच कड़वा होता है

कभी कभी मैं सोचता हूँ क्या मैं दुनिया को उस महान ज्योति से दूर रख रहा हूँ ?  जो मुझे प्राप्त है जो मुझे सदेव आलोकित करते रहता है जो दीप्तमान है मेरे अंदर। कोई दीया जलाकर टोकरी से ढँक कर नहीं रखता पर उसे दीवट पर रखता है ताकि आने जाने  वाला उससे रोशनी पाए। मैं अपने अंदर एक मसीहा को जिन्दा दफनाया हूँ। जब वक्त वसंत का आता है तो कोई वसंत को रोक नहीं सकता उशी तरह एक महान सच को भी चट्टानों से लम्बे समय के लिए दफ्ना के रखा नहीं जा सकता। वो मसीहा ! आज मेरे मुख से ज्योतिपुंज सा फुट पड़ा है।

हम अभी छोटे थे

हम अभी छोटे थे पुरोहित ने ईश्वर की दस आज्ञाएं पकड़ा दी। साथ में दंड भी निर्धारित कर दी। जुगनू सृष्टि देखी ही नहीं थी कि चिराग में खाक हो गया। जाने कितनी गंगायें  बह निकली पर इन्सान पाप पे पाप करते गया। किसी ने कभी हमें स्वतंत्र होके  सोचने नहीं दिया। कितनी धर्मग्रन्थ लिखी गई , कितने गीत रची गई , कितने मतभेद हो गए। शाखाओं पे शाखाएं निकल पड़ी और पृथ्वी ढँक गई। पर मानव अपना ही संहिता बनता है, गीतवितान लिखता है , और मन अपना ही संचयिका रचती है। वस्तु और उस सम्पूर्ण ज्ञान का मोल आज आखिर क्यों प्रश्न बने खड़ा है ? दश दिशाएं है पर आज मैं मौन पड़ा हूँ।

कला

कला किताबों  से नहीं जन्मी वो हृदय और विवेक से जनमती है।  और आदिम कला इसका प्रमाण है।  प्रकृति इसकी पोषक है और कलाकार इसका सृजक। 

लोक कला

तेरे कुची से रंगी आकृतियाँ बारिश की बूँदों में बह गई। माँ ! तेरी बनाई वो आकृतियां किसी संग्रहालय में संग्रहित आकृतियाँ / कलाकृतियों से कम नहीं। तुम तो माता हो ! जननी हो ! कला की। तुम तो उषा ! हो उस महान ऊर्जा की जिससे नए पल्ल्व उगते हैं। नवशिशु कलाकार  जन्मते हैं। तो फिर क्यों इतने दयनीय स्थिति में ? पेड़ के झुरमुट तले जीवन तुम क्यों जीती ? तुम दधीचि की वज्र हो ! जो संपूर्ण सृष्टि को चेतावनी दे सकती हो। आज तुम भीख क्यों मांगती ? तुम तो स्वं दात्रि हो ! क्या नहीं है तुम्हारे पास जो प्रसव करे वो मातृभूमि हो तुम ! और जो पल्लवित करे वो पयोनिधि हो तुम ! तुम सिंधु हो ! बिंदु बनी क्यों बैठी ? मैं दुखित हूँ ! जब तुम्हें मैं देखता हूँ तिरस्कृत ! उपेछित ! इस व्योम तले। आ माँ ! मेरे गले लग जा। मैं आप का पुत्र ! आप को आश्रय देता हूँ। तेरे रंग ! तेरे चिंतन ! मुझमे नवजीवन पाए। मैं ये प्रार्थना करता हूँ। तुम ज्योति हो सम्पूर्ण मानव जगत का मैं आपको नमन करता हूँ ! जोहार ! जोहार ! जोहार ! नायो !